हे जग के जननी ************* "विष्णुपद छंद" जुग जुग ले कवि गावत हावँय,नारी के महिमा। रूप अनूप निहारत दुनिया, नारी के छवि मा। प्यार दुलार दया के नारी,अनुपम रूप धरे। भुँइया मा ममता उपजाये,जम के त्रास हरे। जग के खींचे मर्यादा मा, बन जल धार बहे। मातु-बहिन बेटी पत्नी बन,सुख दुख संग सहे। रूढ़ी वादी मीथक टोरे, नव प्रतिमान गढ़े। नारी के परताप कृपा ले,जीवन मूल्य बढ़े। धरती ले आगास तलक मा, गूँजत दल बल हा। देख धमक नारी के दुबके,धन बल अउ कल हा। नारी क्षमता देख धरागे, अँगरी दाँत तरी। जनम जनम के मतलाये मन,होगे आज फरी। रचनाकार:-सुखदेव सिंह अहिलेश्वर"अँजोर" गोरखपुर,कवर्धा 08/03/2018
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समरसता के फाग *************** "सरसी छंद" ढोल नँगाड़ा बाजै गावन,समरसता के फाग। भेद भरम के परे नींद ले,मनखे जावय जाग। रुखराई ला काट होलिका के सँग देथन बार। बुरा न मानो होली कहिके,पीथन झारा झार। मंद माँस पी खा बउराथन, ए कइसे संस्कार। कारज के पहिली कारज ला,लेवन छाँट निमार। अंतस के बन कचरा बारै,खोजन अइसे आग। भेद भरम के परे नींद ले, मनखे जावय जाग। रंग लगइ हे तभे सार्थक,नइ खिसियाइस गाल। नहितो बस टीका भर धारन,सँगवारी के भाल। खोर गली मा भड़भड़ भड़भड़,उरहा धुरहा चाल। आँखी कान नाक बरकाके, छींचन रंग गुलाल। कुमता के दुरमित ला टारन,छेड़ सुमत के राग। भेद भरम के परे नींद ले, मनखे जावय जाग। दूअर्थी गाना झन बाजय, होवय झन हुड़दंग। लइकन सीखै झन सियान ले,ये अलकरहा ढंग। होली आथे सम रस लाथे,ना की मदिरा भंग। प्रेम भाव ले भिंजै तन मन, होली के रस रंग। लाड़ू सही बँधाजै सुनता,धरन सुमत के पाग। भेद भरम के परे नींद ले,मनखे जावय जाग। रचनाकार:-सुखदेव सिंह अहिलेश्वर"अँजोर" गोरखपुर,कवर्धा