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  बहर आधारित गीत 212 212 212 212 नोनी के दाई सुनतो ओ सुन ए डहर छोड़ना पर जही लागथे गॉंव घर नइये रोजी-मजूरी इहॉं गॉंव मा चल चली चल चली चल चली ओ शहर कपड़ा-लत्ता बिसाई के कापी कलम दिन गुजारी कतिक नून चटनी मा हम ये दरिदरी गरीबी ये फुटहा करम घाले बर लगथे खाये हे किरिया कसम दू हथेरी के खेती हे जरगे फसल चेत कउवा गइस झुॅंझरियागे नजर नइये रोजी-मजूरी इहॉं गॉंव मा चल चली चल चली चल चली ओ शहर... नोनी के दाई....। मुड़ धरे रोज बइठे म बनही कहॉं बिन मजूरी के घर पेट चलही कहॉं कर्जा कर कर गुजारा चलाई कतिक रोज कर्जा उधारी ह मिलही कहॉं कर्जा-बोड़ी ले उधियार होना हवय नइते कर्जा चगल जाही खेती हमर नइये रोजी-मजूरी इहॉं गॉंव मा चल चली चल चली चल चली ओ शहर...... नोनी के दाई...। काम-बूता के अंकाल नइहे उहॉं गॉंव कस हाल बेहाल नइहे उहॉं गॉंव छोड़े के दुख हा रोवाही भले मनखे मजबूर कंगाल नइहे उहॉं रोज खाबो कमाबो बचाबो घलो कहिथें होथे शहर मा हुनर के कदर नइये रोजी-मजूरी इहॉं गॉंव मा चल चली चल चली चल चली ओ शहर... नोनी के दाई....। रचना-सुखदेव सिंह'अहिलेश्वर'

कुण्डलिया छन्द - सुखदेव सिंह'अहिलेश्वर'

  1-कुण्डलिया - निज भाषा आवश्यक अनिवार्य है, बहुभाषा का ज्ञान। पर निज भाषा के लिए, मॉं सम हो सम्मान।। मॉं सम हो सम्मान, नित्य व्यवहृत हो सादर। स्वत: मिले ऐ मित्र, मातृभाषा को आदर। इसका नहीं विभेद, अल्पसंख्यक बहुसंख्यक। निज भाषा का मान, प्रथमत: है आवश्यक। 2-कुण्डलिया - बॅंटवारा बॅंटवारा के हेतु में, था घर ऑंगन खेत। बिन बॉंटे मन बॅंट गया, माता-पिता समेत। माता-पिता समेत, बॅंट गये रिश्ते नाते। बॅंटे खाट घर-घाट, भावनाऍं जज्बातें। दो हिस्सों में बॉंट, लिया जैसे जग सारा। संतानों के बीच, हुआ ऐसा बॅंटवारा। 3- कुण्डलिया - हो रही दिनभर वर्षा वर्षा पर आश्रित फसल, फसलों पर खलिहान। खलिहानों पर मंडियॉं, लख लख मॉल दुकान। लख लख मॉल दुकान, रसोई घर हर घर के। फिर आश्रित हर पेट, गॉंव के शहर-नगर के। वर्षा बिना दिमाग, गया था कहीं ठहर सा। मन अब हुआ प्रसन्न, हो रही दिनभर वर्षा। 4-कुण्डलिया - धोयें अपना हाथ भोजन के पहले सदा, और शौच के बाद। साबुन से अच्छी तरह, धोयें अपना हाथ। धोयें अपना हाथ, तभी तो स्वस्छ  रहेंगे। तन मन होगा स्वस्थ, तभी तो खूब पढ़ेगे। है यह सुन्दर ज्ञान, न समझें केवल स्