कुण्डलिया छन्द - सुखदेव सिंह'अहिलेश्वर'
1-कुण्डलिया - निज भाषा
आवश्यक अनिवार्य है, बहुभाषा का ज्ञान।
पर निज भाषा के लिए, मॉं सम हो सम्मान।।
मॉं सम हो सम्मान, नित्य व्यवहृत हो सादर।
स्वत: मिले ऐ मित्र, मातृभाषा को आदर।
इसका नहीं विभेद, अल्पसंख्यक बहुसंख्यक।
निज भाषा का मान, प्रथमत: है आवश्यक।
2-कुण्डलिया - बॅंटवारा
बॅंटवारा के हेतु में, था घर ऑंगन खेत।
बिन बॉंटे मन बॅंट गया, माता-पिता समेत।
माता-पिता समेत, बॅंट गये रिश्ते नाते।
बॅंटे खाट घर-घाट, भावनाऍं जज्बातें।
दो हिस्सों में बॉंट, लिया जैसे जग सारा।
संतानों के बीच, हुआ ऐसा बॅंटवारा।
3- कुण्डलिया - हो रही दिनभर वर्षा
वर्षा पर आश्रित फसल, फसलों पर खलिहान।
खलिहानों पर मंडियॉं, लख लख मॉल दुकान।
लख लख मॉल दुकान, रसोई घर हर घर के।
फिर आश्रित हर पेट, गॉंव के शहर-नगर के।
वर्षा बिना दिमाग, गया था कहीं ठहर सा।
मन अब हुआ प्रसन्न, हो रही दिनभर वर्षा।
4-कुण्डलिया - धोयें अपना हाथ
भोजन के पहले सदा, और शौच के बाद।
साबुन से अच्छी तरह, धोयें अपना हाथ।
धोयें अपना हाथ, तभी तो स्वस्छ रहेंगे।
तन मन होगा स्वस्थ, तभी तो खूब पढ़ेगे।
है यह सुन्दर ज्ञान, न समझें केवल स्लोगन।
हाथों को कर साफ, खाँय हम ताजा भोजन।
5-कुण्डलिया- गॉंव में काम नहीं है
काम नहीं है गाँव मे, है भी तो दिन चार।
घर बैठे कैसे पले, पाँच पेट परिवार।
पाँच पेट परिवार, गगन छूती मँहगाई।
आवश्यकता ने आज, शहर की राह धराई।
मुझे लगा उस वक्त, पलायन करूँ सहीं है।
जब था मैं आश्वस्त, गाँव मे काम नहीं है।
6-कुण्डलिया- भिक्षु नहीं मजदूर
भूखे हैं वे आज भी, अन्न नही है पास।
अन्तर्यामी ईष्टगण, समझ रहे उपवास।
समझ रहे उपवास, भ्रमित सारे के सारे।
लेकर कृपा प्रसाद, नहीं पहुँचत हैं द्वारे।
भिक्षु नहीं मजदूर, प्राण सूखे तो सूखे।
पर वे सब इस हाल, रहेंगे कब तक भूखे?
7-कुण्डलिया - आई है शुभकामना
आई है शुभकामना, धर बहना का रूप।
नैहर नैनन एक टक, देखत रूप अनूप।।
देखत रूप अनूप, भाव है अभिनन्दन का।
'अहिलेश्वर' है आज, पर्व रक्षाबन्धन का।
राखी शोभत हाथ, भाग्यशाली भाई है।
दुआ प्रार्थना नेह, बहन लेकर आई है।
8-कुण्डलिया - रोक सका है कौन
चीखें चिल्लाऍं बहुत, मुखर रहें या मौन।
सूरज तो होगा उदित, रोक सका है कौन?।।
रोक सका है कौन, सृजन को परिवर्तन को।
ऋतु छ: मौसम चार, मुक्त मदमस्त पवन को।
कुदरत के अनुसार, आचरण करना सीखें।
नेक नयापन देख, न हम चिल्लाऍं चीखें।
9-कुण्डलिया - प्रतिक्षारत हैं याचक
याचक हम जब से हुए, तब से तुम भगवान।
कलम तुम्हें लिखने लगी, तुम हो गये महान।।
तुम हो गये महान, तुम्हारी चर्चा घर-घर।
बड़े-बड़े होर्डिंग्स, लगे हैं शहर-नगर भर।
अच्छी ही है युक्ति, बनाने याचक वाचक।
ध्यान मग्न भगवान, प्रतिक्षारत हैं याचक।
10-कुण्डलिया - जनमत होगा आज का
जनमत होगा आज का, जिन मुद्दों के नाम।
कल भी होंगे सामने, मुद्दे वही तमाम।
मुद्दे वही तमाम, जाति के पंथ धरम के।
हिंसक भाषण ट्वीट, ध्रुवणकारी परचम के।
होगी कॉंख कटार, ऑंख में होगी नफरत ।
इन मुद्दों पर आज, अगर हम देंगे जनमत।
11-कुण्डलिया - होना सबको राख है
होना सबको राख है, निश्चित है तिथि वार।
फिर भी ईर्ष्या आग में, जलना है स्वीकार।
जलना है स्वीकार, कामना है नस नस में।
ले जाये कुछ साथ, किसी के है क्या बस में?
दिन दस दिन संस्कार, याद में रोना-धोना।
मनुज मनोरथ छोड़, राख सबको है होना।
12-कुण्डलिया - फिर अपनी ये ज़िन्दगी
मुझ पर करो यकीन तुम, तुझ पर मैं विश्वास।
फिर अपनी ये ज़िन्दगी, सुख से लेगी सॉंस।।
सुख से लेगी सॉंस, एकता समता अपनी।
सदा रहेगी स्वस्थ, लोकतांत्रिकता अपनी।
तुम अपना कर्तव्य, निभाओ जो है तुझ पर।
मैं अपना कर्तव्य, निभाऊॅं जो है मुझ पर।
13-कुण्डलिया- हे बादल
हे बादल इस बार मैं, बेहद हूँ लाचार।
अल्प और अतिवृष्टि की, सह न सकूँगा मार।
सह न सकूँगा मार, बहुत खस्ता है हालत।
चश्मदीद हो आप, करूँ क्या और वकालत।
जन गण जीवन प्राण, आपके वर्षा का जल।
श्रद्धावनत किसान, ध्यान रखना हे बादल।
14-कुण्डलिया - नारी पूज्या है
नारी पूज्या है सखे, मत करना अपमान।
कहाँ नहीं वह है खड़ी, कहाँ नहीं अवदान।
कहाँ नहीं अवदान, जगत में है वह पल पल।
हाथ कलम को थाम, न करना अब उनसे छल।
वह तो है श्रीमान, बराबर की अधिकारी।
दें उसको सम्मान, जगत जननी है नारी।
15-कुण्डलिया - नारी का अपमान
नारी का अपमान कर, बहुत किये हो पाप।
अब आदर सम्मान कर, कर लो पश्चाताप।
कर लो पश्चाताप, क्षमा की मूरत है वह।
अश्रु दिये हो खूब, पाँव की जूती कह कह।
बेच दिये बाजार, और क्या है मक्कारी।
बनकर दासी वस्तु, बहुत सिसकी है नारी।
16-कुण्डलिया - युग शासक
युग शासक निष्ठुर पुरुष, हे पद पहरेदार।
अब तो मन से दीजिए, नारी को अधिकार।
नारी को अधिकार, कभी तुम नही दिये हो।
शोषण अत्याचार, सतत आकण्ठ किये हो
है इतिहास गवाह, रहे निज कीर्ति उपासक।
संविधान अनुसार, उन्हे पद दो युग शासक।
17-कुण्डलिया - दर्पण
तन के बाहर देखिए, दर्पण सजा अनेक।
तन के भीतर देखने, मन दर्पण है एक।।
मन दर्पण है एक, रोज उसमे भी झाँकें।
जीवन रथ के अश्व, सुगम सतपथ में हाँकें।
तन मन धन बल ज्ञान, काम आ जावे जन के।
जिस बाबत् है प्राप्त, ध्येय पूरण हो तन के।
18-कुण्डलिया-करा दिये जलपान
भूखे प्यासे को अगर, करा दिये जलपान।
समझो उनकी तृप्ति में, तृप्त हुए भगवान।
तृप्त हुए भगवान, आपके निज हाथों से।
धन्य आपके हाथ, करोड़ों द्विज हाथों से।
प्रभू करेंगे याद, आपके जवनासे को।
करा दिये जलपान, कहीं भूखे प्यासे को।
19-कुण्डलिया - शहर लगे श्रमधाम
मैं श्रमसाधक हूँ मुझे, शहर लगे श्रमधाम।
हुनरमंद इस हाथ को, दिया इसी ने काम।
दिया इसी ने काम, उचित रोजी मजदूरी।
कहते रहिए आप, पलायन को मजबूरी।
मुझे चाहिए काम, श्रमिक मैं श्रमआराधक।
शहर नगर या गाँव, करूँ श्रम मैं श्रमसाधक।
20-कुण्डलिया-मृत्युभोज
दुख भारी परिवार में, क्षुब्ध दुखी संतान।
फिर भी तुमको चाहिए, माल-पुआ मिष्ठान।
माल-पुआ मिष्ठान, खुशी से खा भी लेते।
पर दुख है श्रीमान, तनिक शरमा भी लेते।
मृत्युभोज की रीत, नहीं लगती हितकारी।
कर्ज कष्ट के साथ, हमें देती दुख भारी।
21-कुण्डलिया-परिवार
कहने को संसार भी, एक बड़ा परिवार।
पर रहते परिवार में, अब सदस्य कुल चार।
अब सदस्य कुल चार, सकल संसार इसी में।
कर्म धर्म व्यापार, कलम तलवार इसी में।
भिन्न भिन्न ठहराव, भिन्न धारा बहने को।
झिझको मत सुखदेव, कहो जो है कहने को।
22-कुण्डलिया- मत कहना मजदूर
घबराऊँ श्रम से अगर, फिर कैसा मजदूर?
वंशज अजगर का नही, कपि का वंश जरूर।
कपि का वंश जरूर, मगर इंसानो सा हूँ।
प्रिय लगता दिन धूप, तमस को कभी न चाहूँ।
सुख दुख श्रम आराम, सदा खुश जो पा जाऊँ।
मत कहना मजदूर, अगर श्रम से घबराऊँ।
23-कुण्डलिया-अपना गाँव
अपने प्यारे गाँव को, मत छोड़ो सुखदेव।
जहाँ नीम माँ शीतला, पीपल ठाकुर देव।
पीपल ठाकुर देव, ब्रम्ह बरगद में बसते।
अभिवादन जोहार, राम सतनाम नमस्ते।
करो यहीं साकार, तुम्हारे हैं जो सपने।
देगा तेरा साथ, गाँव खुश होकर अपने।
24-कुण्डलिया - मॅंहगाई
मॅंहगाई की मार से, जनता है बेहाल।
थोड़ी भी राहत नहीं, जाने को है साल।।
जाने को है साल, कमी आर्थिक तंगी में।
गुजर-बसर को काम, नहीं तालाबंदी में।
सुध लेती सरकार, तनिक होती भरपाई।
रुकती कुछ सुखदेव, जमाखोरी मॅंहगाई।
25-कुण्डलिया - शिक्षा का अधिकार
माना मुश्किल से मिला, शिक्षा का अधिकार।
आओ अक्षर दीप धर, करें जगत उजियार।
करें जगत उजियार, जहॉं अपना भी घर है।
अपनी बस्ती खोर, गॉंव है शहर-नगर है।
फ़र्ज़ निभाना छोड़, किसी को क्यों दें ताना?
शिक्षा का अधिकार, मिला मुश्किल से माना।
रचनाकार - सुखदेव सिंह''अहिलेश्वर''
मुकाम - गोरखपुर कबीरधाम छत्तीसगढ़
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