ठिठुरन (नवगीत)

 ठिठुरन (नवगीत)


बात बाकी रह गयी ठिठुरन भरी उस रात की।

दर्द देती आज भी है याद उस आघात की।


चल रही ठण्डी हवा थी हौसलों को तोड़ने।

ज़िन्दगी भी डट गयी थी,सॉंस साहस जोड़ने।


टूट पड़ना था उसे शंका कहाँ थी मात की।

बात बाकी रह गयी ठिठुरन भरी उस रात की।


ज़िन्दगी कँप जग रही थी,आसमाँ की छाँव में।

कोशिशें ठिठुरी पड़ी थी,क्या शहर क्या गाँव में।


दुर्दशा को स्मृति करें क्या उस बुरे हालात की।

बात बाकी रह गयी ठिठुरन भरी उस रात की।


कौन समझाता रहा है?मूल्य उसको वोट का।

कौन दिखलाता रहा है?घाव उसको चोट का।


कौड़ियों के तुल्य कीमत आज भी औकात की।

बात बाकी रह गयी ठिठुरन भरी उस रात की।


सर्द ठण्डी रात मे जब कँप रही थी जिन्दगी।

जुड़ गये थे हाथ समझो, हो रही थी बंदगी।


हो रहा था भ्रम खुदा को कष्टदायक बात थी।

बात बाकी रह गयी ठिठुरन भरी उस रात की।


ओज फैले सूर्य का आलोक चारों ओर हो।

तोड़ने बेड़ी तमस की आसरे सा भोर हो।


राह तकती जिन्दगी अब इक नई शुरुवात की।

बात बाकी रह गयी ठिठुरन भरी उस रात की।


रचना- सुखदेव सिंह "अहिलेश्वर"

गोरखपुर, कबीरधाम, छत्तीसगढ़

                

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