जाड़
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                   "चकोर सवैया छंद"

कातिक के महिना धरके अपने सँग मा घर लावय जाड़।
अग्घन हा बनगे जस निंदक कान भरै भड़कावय जाड़।
पूस घलो सुलगावत हे बनके कुहरा गुँगवावय जाड़।
काँपत ओंठ ल देख परै तब अंतस मा सुख पावय जाड़।

                                    
घूमत हे लइका उघरा उँहला नइतो डरुहावय जाड़।
कोन जनी बुढ़वा मन के मन ला कइसे नइ भावय जाड़।
देखत हे कमिया कर जाँगर मूड़ ल ढाँक लुकावय जाड़।
काम बुता नइहे कुछु हाँथ त रोज अलाल बनावय जाड़।


रचनाकार:-सुखदेव सिंह अहिलेश्वर"अँजोर"

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