प्रवासी मजदूर

भइया मजदूर प्रवासी।
देखत हँव तोर उदासी।
भइया मजदूर प्रवासी।
देखत हँव तोर उदासी।

सिरजाये शहर नगर ला,
तँय छोड़ भये सन्यासी।

रेंगे पी जग के हाला।
पाँवो मा परगे छाला।
दिनदिन भर मिल नइ पाए,
रोटी के एक निवाला।

दुख बरसे सरलग अइसे,
जइसे बादर चउमासी।

मुड़ मा बोहे ओ गठरी।
औरंगाबाद के पटरी।
टकटक ले सबो दिखत हे,
रोटी अउ चद्दर कथरी।

मन हा बोधावत नइहे
आवत हे यार रोवासी।

जब ले छाये कोरोना।
दुनिया के कोना कोना।
सब हें घर मा धन्धाये,
तोरे भर हो गे रोना।

तँय सावचेत रहिबे गा
झन होवय सर्दी खाँसी।

देखे निज कुरिया छानी।
आँखी मा भर के पानी।
सपना के शहर नगर मा,
ला के टाँगे जिनगानी।

अच्छा होतिस खा लेते
गाँवे मा चटनी बासी।

रचना-सुखदेव सिंह'अहिलेश्वर'
गोरखपुर कबीरधाम छत्तीसगढ़



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